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भाषा का संकट, सभ्यता का संकट – राहुल देव

RNE, NEW DELHI.

25 सितंबर 2024; साहित्य अकादेमी में आज ‘हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएँ’ विषयक परिसंवाद का आयोजन किया गया। हिंदी पखवाड़े के दौरान आयोजित परिसंवाद के उद्घाटन सत्र में मुख्य अतिथि के रूप में प्रख्यात हिंदी मीडिया विशेषज्ञ राहुल देव, विशिष्ट अतिथि के रूप में प्रख्यात बंजारा लेखक आर. रमेश आर्य एवं अध्यक्ष के रूप में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के पूर्व कुलपति राम मोहन पाठक उपस्थित थे। स्वागत वक्तव्य साहित्य अकादेमी के सचिव के. श्रीनिवासराव ने दिया। कार्यक्रम का संचालन और औपचारिक धन्यवाद ज्ञापन अकादेमी के उपसचिव देवेंद्र कुमार देवेश ने किया।

अपने स्वागत वक्तव्य में के. श्रीनिवासराव ने कहा कि हिंदी सभी भारतीय भाषाओं के बीच संवाद की पृष्ठभूमि तैयार करती है, जोकि भारत जैसे बहुभाषी देश में संभव है। संपूर्ण भारतीय साहित्य के बीच भाषायी एकता का पारस्परिक आंतरिक संबंध है, जो इसे और पठनीय बनाता है। मुख्य अतिथि राहुल देव ने कहा कि वर्तमान में सभी भारतीय भाषाएँ संकट में हैं। एक नई चुनौती अब सहभाषाओं की अस्मिता से भी है। अतः सभी भाषाओं के बीच संवाद जरूरी है, तभी सद्भावना का माहौल बनेगा।

भाषा का संकट कोई मामूली संकट नहीं है। यह सभ्यता का संकट है। पाठकों की बढ़ती कमी के कारण भाषाएँ अपने परिवेश में ही मर रही है। आर. रमेश आर्य ने कहा कि भाषा संस्कृति का पर्याय है। अतः हमें इसमें आदिवासी भाषाओं के शब्दों को संरक्षित करना होगा, क्योंकि वहाँ पर भी भारतीय संस्कृति के अनेकों तत्त्व संरक्षित हैं। भारतीय भाषाओं के बीच सौहार्द की स्थिति के बाद ही हिंदी राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार की जा सकेगी। अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में राममोहन पाठक ने कहा कि हिंदी संस्कार की भाषा के साथ ही समाधान की भाषा भी है। अतः हिंदी भाषा की सनातन परंपरा की रक्षा जरूरी है। उन्होंने भाषा की शुद्धता के लिए समय-समय पर इसका परिमार्जन करने की आवश्यकता पर भी जोर दिया।

परिसंवाद का प्रथम सत्र प्रेमपाल शर्मा की अध्यक्षता में संपन्न हुआ, जिसमें सुधांशु चतुर्वेदी ने मलयाळम् भाषा, रजनी बाला ने पंजाबी भाषा और एनी राय ने ओड़िआ भाषा और हिंदी के बीच के अंतरसंबंधों पर अपने आलेख प्रस्तुत किए। सभी ने अपने भाषाओं में हिंदी की परंपराओं और शब्द भंडार के बीच आपसी समानता पर बात करते हुए कहा कि अनुवाद ही एक ऐसा सेतु है जिनसे इन सब भाषाओं और हिंदी के बीच की कड़ी को और अच्छे ढंग से जोड़ा जा सकता है। सत्र के अध्यक्ष प्रेमपाल शर्मा ने अपने बच्चों को मातृभाषाएँ पढ़ने-पढ़ाने की आवश्यकता पर बल दिया।

द्वितीय सत्र पूरन चंद टंडन की अध्यक्षता में संपन्न हुआ, जिसमें पापोरी गोस्वामी ने असमिया, वर्षा दास ने गुजराती, मनोज माईणकर ने मराठी एवं ए. कृष्णाराव ने तेलुगु भाषा और हिंदी के संबंधों पर अपने विचार व्यक्त किए। पापोरी गोस्वामी ने शंकरदेव के उदाहरण से बताया कि कैसे उन्होंने ब्रज और कैथी भाषा के संयोग से ब्रजावली भाषा में रचनाएँ कर असम में हिंदी की पृष्ठभूमि तैयार की। मनोज माईणकर ने महाराष्ट्र के हिंदी लेखकों बाबूराव विष्णु पराडकर, मुक्तिबोध एवं जयंत नार्ळेकर का उल्लेख करते हुए बताया कि हिंदी-मराठी का परस्पर संबंध बहुत लंबे समय से है।वर्षादास ने कहा कि गुजराती भाषा के अनेक रचनाकार हिंदी में लगातार लिखते रहे हैं और अनूदित भी होते रहे हैं, जिनमें गोवर्धनलाल त्रिपाठी, माणिक लाल मुंशी और वर्तमान में रघुवीर चौधरी, सितांशु यशश्चंद्र प्रमुख हैं।

ए. कृष्णाराव ने तेलुगु पर संस्कृत के गहरे प्रभाव की चर्चा करते हुए कहा कि तेलुगु में भागवत एवं रामकथाएँ सबसे पहले अनूदित हुई हैं। अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में पूरन चंद टंडन ने कहा कि आज हुए गंभीर विचार-विमर्श के बाद हम उम्मीद कर सकते हैं कि भारतीय भाषाओं में सौहार्द की कोई कमी नहीं है बल्कि पिछले कुछ वर्षों में इनके बीच आवाजाही तेजी से हुई है। कार्यक्रम में कई महत्त्वपूर्ण हिंदी विशेषज्ञ लेखक और अनुवादक – विमलेशकांति वर्मा, रीतारानी पालीवाल, कल्लोल चक्रवर्ती, अशोक ओझा, हरिसुमन बिष्ट, राजकुमार गौतम आदि उपस्थित थे।